जीवनी/आत्मकथा >> आईने के सामने आईने के सामनेअतिया दाऊद
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अतिया दाऊद पाकिस्तान की मशहूर लेखिका एवं एक्टिविस्ट हैं और यह किताब आईने के सामने उनकी आपबीती है
Aine Ke Samne - A Hindi Book by Atia Dawood
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अतिया दाऊद पाकिस्तान की मशहूर लेखिका एवं एक्टिविस्ट हैं और यह किताब आईने के सामने उनकी आपबीती है।
सच है कि जिन्दगी गुजारने से ज्यादा तकलीफदेह गुजरी हुई जिन्दगी को दोहराना होता है। स्वयं अतिया के शब्दों में, ‘‘वो सब लिखते ही उसके बारे में सोचने में खुद अपने जिस्म से निकलकर माज़ी के उस मंज़र में आकर ठहर जाती थी।...हर अज़ीयतनाक मंजर इसी तरह से मुझ पर बीता फिर से...और मैं फूट-फूटकर रोई हूँ, तड़पी हूँ, जुदाई की आग में जली हूँ।’’
यह किताब गाँव की उस छोटी-सी बच्ची की कहानी है जो फकीरों और भिखारियों की मदद करने के लिए धूप में धूल के पीछे भागती है और जिसे उस मासूम उम्र में ही सुनना पड़ता है ‘‘मेरी मासूम यतीम बेटी, अपने बाप की शक्ल आखिरी बार देख लो’’ और जो कम उम्र में ही अपनी माँ की ममता से भीमहरूप हो जाती है लेकिन जिन्दगी चलती रहती है और कहानी जारी रहती है। यह किताब उस औरत की कहानी है जो पारम्परिक, दकियानूसी और खस्ताहाल समाज में जन्म लेती है और कदम-कदम पर ठोकरें खाती हुई गिरती-सँभलती अपनी मर्जी से अपनी जिन्दगी जीने का फैसला लेती हैं
बचपन की मस्ती, खेल, भाई-बहन, खानदान, शिक्षा-दीक्षा, नौकरी, मोहब्बत और निकाह, अदबी संगत, एक्टिविस्टिक गतिविधियाँ और डब्ल्यू. ए. एफ. से वाबस्तगी आदि की कई संवेदनशील यादें इस किताब में कलमबंद हैं। दरअसल यादों का एक बड़ा कब्रिस्तान है यहाँ और बहुत सन्नाटा है, गुँजता हुआ। यादों की कब्रें हद्देनजर तक फैली हुई हैं और अतिया की झोली में ढेर सारे फूल हैं और यह वाजिब चिंता भी कि कट्टरपंथियों के वहशी दौर में एक बच्ची को आसानी से अपना जीवन जीने का हौसला रखनेवाली औरत बनने के लिए कितना दर्द सहना पड़ेगा एवं कितना दौड़ना पड़ेगा और यह दुआ भी कि ये लड़की, काश, कभी मंज़र से ओझलन हो।
सच है कि जिन्दगी गुजारने से ज्यादा तकलीफदेह गुजरी हुई जिन्दगी को दोहराना होता है। स्वयं अतिया के शब्दों में, ‘‘वो सब लिखते ही उसके बारे में सोचने में खुद अपने जिस्म से निकलकर माज़ी के उस मंज़र में आकर ठहर जाती थी।...हर अज़ीयतनाक मंजर इसी तरह से मुझ पर बीता फिर से...और मैं फूट-फूटकर रोई हूँ, तड़पी हूँ, जुदाई की आग में जली हूँ।’’
यह किताब गाँव की उस छोटी-सी बच्ची की कहानी है जो फकीरों और भिखारियों की मदद करने के लिए धूप में धूल के पीछे भागती है और जिसे उस मासूम उम्र में ही सुनना पड़ता है ‘‘मेरी मासूम यतीम बेटी, अपने बाप की शक्ल आखिरी बार देख लो’’ और जो कम उम्र में ही अपनी माँ की ममता से भीमहरूप हो जाती है लेकिन जिन्दगी चलती रहती है और कहानी जारी रहती है। यह किताब उस औरत की कहानी है जो पारम्परिक, दकियानूसी और खस्ताहाल समाज में जन्म लेती है और कदम-कदम पर ठोकरें खाती हुई गिरती-सँभलती अपनी मर्जी से अपनी जिन्दगी जीने का फैसला लेती हैं
बचपन की मस्ती, खेल, भाई-बहन, खानदान, शिक्षा-दीक्षा, नौकरी, मोहब्बत और निकाह, अदबी संगत, एक्टिविस्टिक गतिविधियाँ और डब्ल्यू. ए. एफ. से वाबस्तगी आदि की कई संवेदनशील यादें इस किताब में कलमबंद हैं। दरअसल यादों का एक बड़ा कब्रिस्तान है यहाँ और बहुत सन्नाटा है, गुँजता हुआ। यादों की कब्रें हद्देनजर तक फैली हुई हैं और अतिया की झोली में ढेर सारे फूल हैं और यह वाजिब चिंता भी कि कट्टरपंथियों के वहशी दौर में एक बच्ची को आसानी से अपना जीवन जीने का हौसला रखनेवाली औरत बनने के लिए कितना दर्द सहना पड़ेगा एवं कितना दौड़ना पड़ेगा और यह दुआ भी कि ये लड़की, काश, कभी मंज़र से ओझलन हो।
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